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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शांति-1 मुंशी प्रेम चंद

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स्‍वर्गीय देवनाथ मेरे अभिन्‍न मित्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आती है, तो वह रंगरेलियां आंखों में फिर जाती हैं, और कहीं एकांत में जाकर जरा रो लेता हूं। हमारे देर रो लेता हूं। हमारे बीच में दो-ढाई सौ मील का अंतर था। मैं लखनऊ में था, वह दिल्‍ली में; लेकिन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो कि हम आपस में न मिल पाते हों। वह स्‍वच्‍छन्‍द प्रकति के विनोदप्रिय, सहृदय, उदार और मित्रों पर प्राण देनेवाला आदमी थे, जिन्‍होंने अपने और पराए में कभी भेद नहीं किया। संसार क्‍या है और यहां लौकिक व्‍यवहार का कैसा निर्वाह होता है, यह उस व्‍यक्ति ने कभी न जानने की चेष्‍टा की। उनकी जीवन में ऐसे कई अवसर आए, जब उन्‍हें आगे के लिए होशियार हो जाना चाहिए था। मित्रों ने उनकी निष्‍कपटता से अनुचित लाभ उठाया, और कई बार उन्‍हें लज्जित भी होना पडा; लेकिन उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक लेने की कसम खा ली थी। उनके व्‍यवहार ज्‍यों के त्‍यों रहे— ‘जैसे भोलानाथ जिए, वैसे ही भोलानाथ मरे, जिस दुनिया में वह रहते थे वह निराली दुनिया थी, जिसमें संदेह, चालाकी और कपट के लिए स्‍थान न था— सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार-बार उन्‍हें सचेत करना चाहा, पर इसका परिणाम आशा के विरूद्ध हुआ। मुझे कभी-कभी चिंता होती थी कि उन्‍होंने इसे बंद न किया, तो नतीजा क्‍या होगा? लेकिन विडंबना यह थी कि उनकी स्‍त्री गोपा भी कुछ उसी सांचे में ढली हुई थी। हमारी देवियों में जो एक चातुरी होती है, जो सदैव ऐसे उडाऊ पुरूषों की असावधानियों पर ‘ब्रेक का काम करती है, उससे वह वंचित थी। यहां तक कि वस्‍त्राभूषण में भी उसे विशेष रूचि न थी। अतएव जब मुझे देवनाथ के स्‍वर्गारोहण का समाचार मिला और मैं भागा हुआ दिल्‍ली गया, तो घर में बरतन भांडे और मकान के सिवा और कोई संपति न थी। और अभी उनकी उम्र ही क्‍या थी, जो संचय की चिंता करते चालीस भी तो पूरे न हुए थे। यों तो लड़पन उनके स्‍वभाव में ही था; लेकिन इस उम्र में प्राय: सभी लोग कुछ बेफ्रिक रहते हैं। पहले एक लड़की हुई थी, इसके बाद दो लड़के हुए। दोनों लड़के तो बचपन में ही दगा दे गए थे। लड़की बच रही थी, और यही इस नाटक का सबसे करूण दश्‍य था। जिस तरह का इनका जीवन था उसको देखते इस छोटे से परिवार के लिए दो सौ रूपये महीने की जरूरत थी। दो-तीन साल में लड़की का विवाह भी करना होगा। कैसे क्‍या होगा, मेरी बुद्धि कुछ काम न करती थी।

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